Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्म ग्रन्थ
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कारण यह है कि आतप शुभ प्रकृति है और शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध विशेष मक्लिष्ट परिणामों से होता है । अतः उन देवों के एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों के बंध के समय आतप प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध होता है । यदि आतप प्रकृति के जघन्य अनुभाग बंध करने योग्य संक्लिप्ट परिणाम मनुष्य और तिर्यंचों के हों तो वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं तथा नारक और सानत्कुमार आदि कल्पों के देव जन्म से ही इस प्रकृति का बन्ध नहीं करते हैं। इसीलिये ईशान स्वर्ग तक जो देवों को ही इसका वन्धक बतलाया है ।
लातावेदनीय, स्थिर, शुभ, यशःकोति और इनकी प्रतिपक्षी असातावेदनीय, अस्थिर, अभ और अयशी इन आराशियों के छ अनुभाग बन्ध के स्वामी सम्बाढष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि हैं । इन बंधकों के लिये यह विशेष समझना चाहिये कि वे परावर्तमान मध्यम परिणाम वाले हों । इसका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है ।
प्रमत्त मुनि अन्तमुहर्त पर्यन्त असातावेदनीय की अन्तःकोटाकोटि सागर प्रमाण जघन्य स्थिति बांधता है और अन्तमुहत के बाद सातावेदनीय का बन्ध करता है, पुनः असातावेदनीय का बन्ध करता है । इसी तरह देशविरत, अविरत सम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और मिथ्याइष्टि जीव साता के बाद असाता का और असाता के बाद साता वेदनीय का बन्ध करते हैं। इनमें से मिथ्यादृष्टि जीव साता के बाद असाता का और अमाता के बाद साता का बंध तब तक करता है जब तक साता वेदनीय की स्थिति पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपमादी है । उसके बाद और संक्लिष्ट परिणाम होने पर केबल अमाता का ही तब तक बन्ध करता है जब तक उसकी तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति होती है । प्रमत्त संवत से आगे अप्रमन नंयत आदि गुणस्थानों में जीव केवल सातावेदनीय का ही बन्ध करता है।