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पंचम कर्मग्रन्य
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गाथा-तंजस चतुजा, चतुष्क, देदी: काई और. नामकर्म का अनुत्कृष्ट अनुभाग बंध तथा बाकी की ध्रुवबंधिनी और घाती प्रकृतियों का अजघन्य अनुभाग बंध और गोत्रकर्म के दोनों बन्ध (अनुस्कृष्ट और अजघन्य) चारों प्रकार के हैं।
उक्त प्रकृतियों के शेष अनुभाग बन्ध और बाको की अन्य शेष प्रकृतियों के सभी बंध दो ही प्रकार के हैं।
विशेषार्य-इस गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों में अनुभाग बंध के भंगों का विचार किया गया है । ___बंध के चार प्रकार हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य । इनमें से कर्मों की सबसे कम अनुभाग शक्ति को जघन्य और जघन्य अनुभाग शक्ति से ऊपर के एक अविभागी अंश को आदि लेकर सबसे उत्कृष्ट अनुभाग तक के भेदों को अजघन्य कहते हैं। इन जघन्य और अजघन्य भेदों में अनुभाग के अनन्त भेद गभित हो जाते हैं ।
सबसे अधिक अनुभाग शक्ति को उत्कृष्ट और उसमें से एक अविभागी अंश कम शक्ति से लेकर सर्वजघन्य अनुभाग तक के भेदों को अनुस्कृष्ट कहते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट भेद में भी अनुभाग शक्ति के समस्त भेद गर्भित हो जाते हैं । इसको उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि कल्पना से सर्वजघन्य का प्रमाण है और उत्कृष्ट का प्रमाण १६ | तो इसमें ८ को जघन्य कहेंगे और आठ से ऊपर नौ से लेकर सोलह तक के भेदों को अजघन्य तथा सोलह को उत्कृष्ट और सोलह से एक कम पन्द्रह से लेकर आठ तक के मेदों को अनुत्कृष्ट कहेंगे । मूल और उत्तर प्रकृतियों में इन मेदों का विचार सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव भंगों के साथ किया गया है।