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शतक
साता वेदनीय का निरन्तर उत्कृष्ट बन्धकाल कुछ अधिक आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि बतलाया है।'
एक सौ पचासी सागर तक निरन्तर बन्धने वाली प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं - 'परघुस्सासे पणिदि तसचउगे-पराघात, उच्छ्वास, पंचेन्द्रिय जाति और त्रसचतुष्क, कुल ये सात प्रकृतियां हैं । इन प्रकृतियों के अध्रुवबन्धिनी होने से कम-से-कम इनका निरन्तर बन्धकाल एक समय है । क्योंकि एक समय के बाद इनको विपक्षी प्रकृतियां इनका स्थान ले लेती हैं तथा उत्कृष्ट निरन्तर बन्धकाल एकसौ पचासी सागर है।
यद्यपि गाथा में उक्त सात प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध के उत्कृष्ट समय को एक सौ पचासी सागर बताया है और पंचसंग्रह में भी इसी प्रकार कहा है । लेकिन इसके साथ चार पल्य अधिक और जोड़ना चाहिये । क्योंकि इनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियों का जितना अबन्यकाल होता है उतना ही इनका बन्धकाल है। गाथा ५६ में इनकी प्रतिपक्षी स्थावरचतुष्क आदि प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल चार पल्य अधिक एकसौ पचासी सागरोपम बतलाया है, अतः इनका बन्ध
१ देशोतपूर्वकोटिभावनात्वेषा इह किल कोऽपि पूर्वकोट्यायुको गर्भस्थो । न व मामान सातिरेकान् गमयति, जातोऽप्यष्टी वर्षाणि पावत् देशविरति पर्वविनि वा न प्रतिपद्यते, वर्षाष्टकादधो वर्तमानस्य सर्वस्यापि तथास्वा. भाव्यात् देशतः मर्वतो वा विरतिप्रतिपत्तरभावात् ।
-पंचसंग्रह मलयगिरिधीका, पृ. ७६ २ इन च पचनु.पत्यम्' इति अनिदेशेऽपि 'सचतुल्यम्' इति ब्याख्यानं कार्यम् । यतो यावानतेहिपक्षस्याबन्धकालस्तावाने यासां बन्धकाल इति । पत्रसंग्रहादी च उपलनणादिना केनचित् कारणेन यन्नोप्तं तदभिप्राय न विम इति ।
-पंचम कम्पप स्पीपा टीका, पृ०६०