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सनक
जाता है । शुभ प्रकृतियों में एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है।'
इस प्रकार ने अनुभाग बंध का स्वरूप, उसके कारण और भेदों का वर्णन करके अब अनुभाग बन्ध के स्वामियों को बतलाते हैं। पहले उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन करते हैं।
तिम्वभिगवावरायव सुमिच्छा विगलसुहमनिरयतिगं। तिरिमणुयाउ तिरिनरा तिरिदुगवट्ठ सुरनिरमा ॥६६।।
सामार्थ-ति-- मी मर जा, गागा स्त्र - एकेन्द्रिय जाति, स्थावर और आतप नामकर्म का, सुरमिच्छामिथ्यारष्टि देव, विगलसुसमनिरपतिगं -विकलत्रिक, सूक्ष्मश्रिम और नरकत्रिक का, तिरिमणुयाउ–तियं चायु और मनुष्यायु का, तिरिनरातिर्मच और मनुष्य, तिरिनुगछेषछ –तिर्यपातिक और सेवातं संहनन का, मुरनिरिया .. देव और नारक |
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१ गो० कर्मकांड में भी अनुभाष बंध का वर्णन कर्मग्रन्थ के वर्णन से मिलना जुलता है, लेकिन कयन पाली भिन्न है । उममें घातिकर्मों की शक्ति के चार विभाग किये हैं-लाना, दाह, अस्थि और पत्थर (गा०-१८०) । जैसे ये चारों पदार्थ उत्तरोतर अधिक कठोर होते हैं, उसी प्रकार कर्मों की शक्ति समझना चाहिए। इन चारों विभागों के क्रमशः एक, द्वि, त्रि और चतुः स्थानिक नाम दिये जा सकते हैं। इनमें लता भाग देशघाती हैं और बारु भाग का अनंतवां भाग देशघाती और शेष बहभाग सर्वघाती है । अस्थि और प्रस्थर भाग तो सर्पघाती ही हैं । अपातीकों के पुण्य और पाप रूप दो विभाग करके पुण्य प्रकृतियों के गुड़. खांड, शकर और अमृत रूप चार विभाग किये हैं और पाप प्रकृतियों में नीम, कंजीर, विष और हलाहल इस तरह चार विभाग किये हैं (गा० १८४)। इन विभागों को भी क्रमशः एक, डि, त्रि और चतुःस्थानिक नाम दिया जा सकता है।