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पंचम कर्मग्रन्थ
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योग्य प्रकृतियों की बंधन्युछित्ति के समय होता है। इन उमतीस प्रकृतियों के बंधकों में अपूर्वकरण क्षपक ही अति विशुद्ध होता है।
उक्त वतीस प्रकृतियों के नाम गुणस्थानों के क्रम से इस प्रकार हैं
बैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तेजमचतुष्क (तंजस, कार्मणअगृहलघु, निर्माण), तीर्थंकर, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, यश कीर्ति नामकर्म को छोड़कर सदशक में गभित प्रस, बादर, पर्याप्त आदि नौ प्रकृतियां, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास, इन उनतीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग का बंध आठवें अपूर्वकरण गणस्थान के छठे भाग में देवगति योग्य प्रकृतियों के बंधविच्छेद के समय होता है।
साता वेदनीय, यशःकीर्ति नामकर्म और उच्च गोत्र इन तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध दसवें मूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है।
इस प्रकार से अभी तक १७ और ३२ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनु. भाग बंध के स्वामियों का कथन करने के बाद अब शेष प्रकृतियों के बारे में विचार करते हैं____ 'तमतमगा उज्जोयं' यानी तमतमप्रभा नामक सातवें नरक के नारक उद्योत नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध करते हैं। इसका कारण यह है कि सातवें नरक का नारक सम्यक्त्वप्राप्ति के लिये यथाप्रवृत्त आदि तीन करण करते समय अनिवृत्तिकरण में मिथ्यात्व का अंतरकरण करता है । उसके करने पर मिथ्यात्व की स्थिति के दो भाग हो जाते हैं-एक अन्तरकरण से नीचे की स्थिति का, जिसे प्रथम स्थिति कहते हैं और इसका काल अन्नमुहूर्त मात्र है तथा दूसरा उससे ऊपर की स्थिति का, जिसे द्वितीय स्थिति कहते हैं । मिथ्यात्व की अन्तमुहर्त प्रमाण नीचे की स्थिति के अंतिम समय में यानी जिससे