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शतक
गाथार्थ - स्त्यानद्धित्रिक, अनंतानुबंधी कषाय और मिथ्यात्व समय का सम्यक्त्व सहित चारित्र प्राप्त करने के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जघन्य अनुभाग बंध करते हैं। देशविरति चारित्र के सम्मुख हुआ अविरत सम्यग्दृष्टि दूसरी कषाय का और सर्वविरति चारित्र के सन्मुख होने वाला देश - विरति तीसरी कषाय का और प्रमत्तसंयत अरति व शोक मोहनीय का जघन्य अनुभाग बंध करता है ।
विशेषार्थ - उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाकर इस गाथा से जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन प्रारम्भ करते हैं ।
पूर्व में यह बतलाया गया है कि विशुद्ध परिणामों से अशुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध और संक्लेश परिणामों से शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है। इस गाथा में जिन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध लाया है, वे सब अशुभ प्रकृतियां है। अतः उनका अनुभाग बंध करने वाले स्वामियों के लिये विशेषण दिया है'हो' संयम के अभिमुख मनुष्य, जो गाया में बताई गई अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध का स्वामी है ।
गाथा में आये इस 'संजमुम्मुह' पद को प्रत्येक के साथ लगाया जाता है अर्थात् जो संयम धारण करने के अभिमुख है - जो जीव तत्काल दूसरे समय में ही संयम धारण कर लेगा, उसके अपने-अपने उस गुणस्थान के अंतिम समय में उस प्रकृति का जघन्य अनुभाग बंध होता है। यहां संयम के अभिमुख पद को प्रत्येक गुणस्थान के साथ जोड़कर आशय समझना चाहिये। जो इस प्रकार है - स्त्यानद्धित्रिक, अनुबंधी कपाचक और मिथ्यात्व मोहनीय इन आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध सम्यक्त्व संयम के अभिमुख मिध्यादृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अंतिम समय में करता है। अप्रत्याख्यानावरण