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शतक
की ओर उन्मुख चौथा गुणस्थानवी जीव चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में करता है । प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध पांचवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान में जाता है तब पांचवें गुणस्थान के अन्तिम समय में तथा अरति और शोक इन दो प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध छठे गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में जाने दाला छठे गुणस्थान के अंतिम समय में करता है। यानी आगे-आगे का गुणस्थान प्राप्त करने से पहले समय में स्त्यानद्धिविक आदि प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है।
उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध होने के प्रसंग में इतना और समझ लेना चाहिये कि यदि पहले गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में न जाकर पांचवें या छठे या सात गुणस्थान में जाये, इसी तरह चौथे गुणस्थान से पांचवें में न जाकर छठे या सातवें गुणस्थान में जाये तो भी उनका जघन्य अनुभाग बंध होगा। क्योंकि उक्त प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध के लिये विशुद्ध परिणामों की आवश्यकता है और उस दशा में तो पहले से भी अधिक विशुद्ध परिणाम होते हैं। इसी से गाथा में 'संजमुम्मुहो' पद दिया गया है। जिसका यह अर्थ है कि अमुकअमुक गुणस्थान वाले संयम के मेदों में से किसी भी संयम की ओर अभिमुख होते हैं तो उनको उक्त प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है।
अब आगे अन्य प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाते हैं।
अपमाइ हारगदुगं दुनिअसुवमहासरहकुच्छा । भयमुवधायमपुस्खो अनियट्टी पुरिससंजलणे ॥७॥
शब्दार्थ-अपमाइ---अप्रमत्त मुनि, हारगबुगं--आहारकद्विक, दुनिए-दो निद्रा, असुघल-अप्रशस्त वर्णचसुष्क, हासरइ. कुच्छा-हास्य, रति और जुगुप्सा, पय--भय, उबघाय-उपधात