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पंचम कर्म ग्रन्थ
२४५ कपायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध संयम-देशसंयम के अभिमुख अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अपने गुणस्थान के अन्त समय में करता है। प्रत्याख्यानावरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध संयम अर्थात् सर्वविरति-महावतों को धारण करने के सन्मुख देशविरति गुणस्थान वाला जोब अपने गुणस्थान के अंत समय में करता है तथा अरति व शोक का जघन्य अनुभाग बंध संयम अर्थात् अप्रमत्त संयम के अभिभुख प्रमत्त मुनि अपने गुणस्थान के अन्त में करता है । ' सारांश यह है कि स्त्यानद्धित्रिक आदि आठ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध पहले गुणस्थान वाला जब सम्यक्त्व के अभिमुख होकर चौथे गुणस्थान में जाता है तब पहले गुणस्थान के अन्तिम समय में करता है । अप्रत्याख्यानाधरण कषायचतुष्क का जघन्य अनुभाग बंध पांचवें गणस्थान-देविति
'सजमुम्मुहति सम्म कस्वसंकमामिमुखः सम्यक्त्वसामायिक प्रतिपित्सः" । अप्रत्यास्थानावरण लक्षणस्त्र " अविरत सभ्यम्हष्टि संपगामिमुख:-देशविरतिसामायिक प्रतिपित्लुमन्दरसं वघ्नाति । तथा तृतीयकषायचतुष्टयस्य देश विरति: " संयमोन्मुखः""सर्वविरतिसामायिक प्रनिन्सुिमन्दरसं बघ्नाति । तथा प्रमत्तमतिः संयमोन्पुन:-अप्रमत्तसंयम प्रति पित्यः-।
-पंचम कर्मग्रम्य टीका, पृ०७१ लेकिन कर्ममकृति पृ० १६० तथा पंचसंग्रह प्रथम भाग में मयम का अर्थ संयम ही किया गया है। यथा - अष्टानां कर्मणा सम्यक्त्वं संयमं च युगपत्तिपसुकामो मिथ्याष्ट्रिपचरमसमय जघन्यानुभागबंधयामी, अप्रत्याख्यानावरणकषायाणामविरतसम्पष्टिः संयमं प्रतिपत्तकाम: प्रत्याख्यानावरणानां देश विरतः सर्वविरतिप्रतिपिश्सृजघन्यानुभागबन्धं करोति ।
गो० कर्मकांड गाथा १७१ में 'संजमुम्मुहो' पद का आपाय बतलाने के लिये 'संजमगुणपच्छिदे' पर आया है। टीकाकार ने संयम का अर्थ - संयम ही किया है।