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पंचम कर्मग्रन्थ
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इस प्रकार से ४२ पुण्य प्रकृतियों और १४ पाप प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों को तो अलग-अलग बत्तला दिया है । इनसे शेष रही ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी चारों गति के संश्लिष्ट परिणामी मिथ्याष्टि जीवों को बतलाया है-चउगइमिच्छा उ सेसाणं ।'
समस्त बंधयोग्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंश्व के स्वामियों को बतलाकर अब उनके जघन्य अनुभाग बंध के स्वामियों को बतलाते हैं।
थीति अमिच्छ मदरसं संजमुम्मुहो मिनछो। वितियकसाय अविरय वेस पमलो अरइसोए ॥६६॥
शब्दार्थ-थोतिर्ग-स्त्यानद्धित्रिक, अमिल्छ -अनंतानुत्रंधी कषाय और मिथ्यात्व मोदनीय का, पसर-नघन्य अनुभाग बंध संजभुम्मुहो- सम्यक्त्व चरित्र के अभिमुख, मिच्योमिथ्यादृष्टि, विपतियकताय-दूसरी और तीसरी कपाय का, अविरय - अविरत सम्यग्दृष्टि, देस–देशविरति, पमतो-प्रमत्तविरत, अरइसोए-अरति और शोक मोहनीय का।
१ यहाँ सामान्य से ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बन्धक यारों गति के
तीन कषायवंत मिथ्याइष्टि जीव बतलाये हैं। इसमें उतना विशेष समझना चाहिए कि हास्य, रलि, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पहले और अन्तिम को छोड़कर शेष संहनन और संस्थान के सिवाय ५६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध तीन कषायी चारों गति के मिथ्या दृष्टि करते हैं और उक्त बारह प्रकृतियों का उस-उस प्रकृति के बन्ध योग्य संवलेश में वर्तमान जीव उत्कृष्ट अनुभागनन्ध्र करते हैं। जैसे कि नपुसकवेद के रसबंध में तीव्र संक्लेश चाहिए, उसकी अपेक्षा स्त्रीवेद को रसबंध में कम और उसकी अपेक्षा भी पुरुषवेद के उत्कृष्ट रसबंध में हीन संक्लेग चाहिये । सो प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए ।