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गाथार्थ-वैक्रियद्विक, देवद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति, वर्णचतुष्क, तैजसचतुष्क, तीर्थंकर नामकर्म, साता वेदनीय, समचतुरस्र संस्थान, पराघात, सदगक, पंचेन्द्रिय जाति, उच्छ्वास और उच्च गोत्र का उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक श्रीणि चड़ने वाले करते हैं ।
तमातमप्रभा के नारक जीव उद्योत नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं तथा सम्बग्दृष्टि देव मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वज्रपभनाराच संहनन का उत्कृष्ट अनुभाग बांधते हैं। दोष प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं ।
विशेषार्थ-- इन दो गाथाओं में पूर्व गाथा में बताई गई सत्रह प्रकृातियों के अलावा शेष रही प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध के स्वामियों का कथन किया है। जिनमें कुछ प्रकृतियों का नामोल्लेख करके शेष प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभाग बंध का स्वामी चारों गति के मिथ्यादृष्टि जीवों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है। ___'विउव्विसुरा“सासुच्च' पद में वैक्रियद्धिक से लेकर उच्छ्वास, उच्चगोल तक बत्तीस प्रकृतियों को ग्रहण किया गया है। जिनका उत्कृष्ट अनुभाग बंध क्षपक श्रोणि आरोहण करने वाले मनुष्यों को बतलाया है । उनमें से साता वेदनीय, उच्च गोत्र और सदशक में गभित यशःकीर्ति नामकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग बंध दसवें सुक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में होता है। क्योंकि इन तीन प्रकृतियों के बंधकों में बही सबसे विशुद्ध है और पुण्य प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध विशुद्ध परिणामों से होता है।
उक्त तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग में देवगति के