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पंचम कर्मग्रन्थ
है, विशुद्ध भावों के होने पर उत्तने हो स्थाना से उत्तरता है तथा उपशम श्रेणि बढ़ते समय जितने विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, गिरते समय उतने ही संक्लेशस्थानों पर उतरता है। इस प्रकार से तो जितने मक्लेश के स्थान, उतने ही विशुद्धि के स्थान हैं। किन्तु जब क्षपक श्रेणि की दृष्टि से विचार करते हैं तो विशुद्धि के स्थान प्रवेश के स्थानों से अधिक है | क्योंकि क्षपक धणि त्रने बाला जीव जिन विशुद्धिस्थानों पर चढ़ता है, उन से नीचे नहीं उतरता है, यदि उन विशुद्धि के स्थानों के बराबर संक्लेशस्थान भी होते तो उपशम श्रेणि के समान क्षपक थणि में जीव का पतन अवश्य होता, किंतु ऐसा होता नहीं है, क्षपक श्रोणि पर आरोहण करने के बाद जीव नीचे नहीं आता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि क्षपक श्रीणि में विशुद्धि के स्थानों की संख्या अधिक है और संक्लेशस्थानों की संख्या विशुद्धि के स्थानों की अपेक्षा कम । विशुद्धिस्थानों के रहते हुए शुभ प्रकृतियों का केवल चतुःस्थानिक ही रसबंध होता है तथा अत्यन्त मंक्लेश स्थानों के रहने पर शुभ प्रऋतियों का बंध ही नहीं होता है। कोई जीव अत्यन्त संक्लेशा के समय नरकगति योग्य वैक्रिय शरीर आदि शुभ प्रकृतियों का बंध करते हैं, किंतु उनके भी भवस्वभाव के कारण उस समय द्विस्थानिक ही रमबंध होता है तथा मध्यम परिणामों से बंधने वाली शुभ प्रकृतियों में भी विस्थानिक रमबंध होता है । अतएव शुभ प्रकृतियों में कहीं भी एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है।
इम प्रकार से अनुभाग बंध के स्थानों और उनके कारण कपायस्थानों को तथा कितनी प्रकृतियों का चारों स्थानिक वाला बंध होता है, आदि को बतलाकर पुनः शुभ और अशुभ रस का विशेष स्वरूप कहते हैं।
निबुच्छरसो सहजो तिचउभाग फक्किमागतो। गठाणा अनुहो असुहाग मुहो सुहाणं तु ॥१५॥