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वे तो नियम से सर्वघाती ही होते हैं और जो स्पर्धक द्विस्थानिक रस वाले होते हैं, वे देशघाती भी होते हैं और सर्वघाती भी, किन्तु एकस्थानिक रस वाले स्पर्धक देशघाती ही होते हैं । इसीलिये इन सबह प्रकृतियों का एक, डि वि और चतुःस्थानिक, चारों प्रकार का रसबंध माना जाता है। इनका एकस्थानिक रसबन्ध तो नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर बंधता है और नौवें अनिवृत्तिवादर गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में द्विस्थानिक, तिस्थानिक और चतुःस्पनिक रसबंध होता है किन्तु एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है। क्योंकि शेष प्रकृतियों में ६५ पाप प्रकृतियाँ हैं और नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग बीत जाने पर उनका बन्ध नहीं होता है । अर्थात् अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानिक रसबन्ध नौवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के संख्यात भाग के बीत जाने के बाद ही होता है और वहां अन्तराय आदि की उक्त १७ प्रकृतियों को छोड़कर शेष अशुभ प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है । इसीलिये शेप ६५ प्रकृतियों का एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है । इन ६५ प्रकृतियों में केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का भी समावेश है । लेकिन इन दोनों प्रकृतियों के बारे में यह समझना चाहिये कि इनका बन्ध दसवे गुणस्थान तक होता है, किन्तु इनके सर्वघातिनी होने से इनमें एकस्थानिक रसबन्ध नहीं होता है ।
शेप ४२ पुण्य प्रकृतियों में भी एकस्थानिक रसबंध नहीं होता है । इसका कारण यह है कि जैसे ऊपर चढ़ने के लिये जितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं, उतारने के लिये उतनी ही सीढियां उतरनी होती हैं। वैसे ही संक्लिष्ट परिणामी जीव जितने संक्लेश के स्थानों पर चढ़ता
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इतिद्वारा सवित्राणि होति फड्डाई दृट्ठाणियाणिमीसाणि देसधाईणि
साणि ||
-संग्रह १४६