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शतक
आठवें गुणस्थान के छठे भाग में ही हो जाता है। पुनः उपशम श्रोणि से गिरकर अन्तमुहूर्त तक तीर्थकर प्रकृति का बंन करके बह जीव उपशम श्रीणि चढ़ा और वहां उसका अबन्धक हुआ। उस समय तीर्थ कर प्रकृति का जघन्य अंधकाल अन्तमुहूर्त घटित होता है । ___ इस प्रकार से अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर' बैश्वकाल के कथन के साथ स्थितिबंध का विवेचन पूर्ण होता है। अब आगे रसबंध (अनुभाग बंध) का विवेचन करते हैं। रसबंध ___बंध के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और रस इन चार भेदों में से प्रकृतिबंध और स्थितिबंध का वर्णन करने के बाद अब रसबंध अथवा अनुभाग बंध का वर्णन करते हैं । सबसे पहले ग्रन्थकार शुभ और अशुभ प्रकृतियों के तीब्र और मंद अनुभाग बंध के कारणों को बतलाते हैं।
तिम्रो असुहसुहाणं संकेसविलोहिओ विवज्जयउ । मबरसो गिरिमहिरयजलरेहासरिसकसाएहि ॥६॥ चउठाणाई असुहा सुनहा विग्घदेसघाइआवरणा । पुमसंजलणिगबुतिचउठाणरसा सेस दुगमाई ॥४॥
शब्दार्थ-सिम्बो-तीवरस, भसुहसुहाणं - अशुभ और शुभ प्रकृत्तियों का, संकेसविसोहिओ-संक्लेश और विशुद्धि द्वारा, विबज्म
मो० कर्मकांड में अध्रुवयंनिनी प्रकृतियों का सिर्फ जघन्य बन्धकाल ही बतलाया है
अवरो भिषण मुहत्तो तित्याहाराण सटनआऊणं । समओ छावट्ठीणं बंधो तम्हा दृधा सेसा ।। १२६
तीर्थकर, अाहारकनिक और चार आयुओं के निरन्तर बध होने का जघन्य काल अन्त मुहूर्त है और शेष छियासह प्रकृतियों के निरन्तर बन्ध का जघन्य काल एक समय है।