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पंचम कर्मग्रन्थ
यज विपरीतता से, मंदरसो-मंदरस
गिरिमहिरपजलरेहा -
पर्वत, पृथ्वी, रेती और जल की रेखा के सरि-ममान कसाहि-
कषाय द्वारा
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चउठाणाई — चतुः स्थानादि, असुहा— अशुभ प्रकृतियों में, सुह महा- शुभ प्रकृतियों में विपरीतता से, विन्धवेसधाइआवरणाअन्तराय और देशवाती आवरण प्रकतिया पुमसंजलन - पुरुषवेद और संज्वलन कषाय, इगदुसिचउठाणरसा एक, दो, तीन, चार स्थानिक रसयुक्त सेसा - बाकी की प्रकृतिया, सुगमाई-दो आदि
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स्थानिक रसयुक्त |
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गावार्थ - अशुभ और शुभ प्रकृतियों का तीव्र रस अनुक्रम से संक्लेश और विशुद्धि के द्वारा बंधता है । पर्वत, पृथ्वी, रेती और पानी में की गई रेखा के समान कषाय द्वारा
अशुभ प्रकृतियों में चतुःस्थानिक आदि रस होता है और शुभ प्रकृतियों में विपरीतता द्वारा चतुःस्थानिक आदि रस होता है। पांच अन्तराय, देशघाती आवरण करने वाली प्रकृतियां, पुरुषवेद और संज्वलन कषाय चतुष्क, ये प्रकृतियां एकस्थानिक, द्विस्थानिक, निस्थानक और चारस्थानिक रसयुक्त और बाकी की प्रकृतियां द्विस्थानिक आदि तीन प्रकार के रसयुक्त बंधती हैं ।
विशेषार्थ - लोक में कार्मण वर्गणायें व्याप्त हैं। इन कर्म परमाणुओं में जीव के साथ बंधने से पहले किसी प्रकार का रस - फलजनन शक्ति नहीं रहती हैं । किन्तु जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं तब ग्रहण करने के समय में ही जीव के कषाय रूप परिणामों का निमित्त पाकर उनमें अनंतगुणा रस पड़ जाता है जो अपने विपाकोदय में उसउस रूप में अपना-अपना फल देकर जीव के गुणों का घात करते हैं ।