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पंचम फर्मग्रन्थ
प्रकृतियों में तीन अनुभाग बंध होता है तथा इससे विपरीत भावों से मंद अनुभाग बंन होता है अर्थात् विशुद्ध भावों से अशुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग बंध तथा संक्लेश भावों से शुभ प्रकृतियों में मंद अनुभाग
अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को नीम वगैरह के कङ वे रस को उपमा और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को ईख के रस को उपमा दी जाती है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि जैसे नीम का रस कटुक होता है, वैसे ही अशुभ प्रकृतियों को अशुभ फल देने के कारण उनका रस बुरा समझा जाता है । ईख का रस मोठा और स्वादिष्ट होता है, वैसे ही शुभ प्रकृतियों का रस सुखदायक होता है ।
अशुभ और शुभ दोनों ही प्रकार की प्रकृतियों के तीव और मंद रस को चार-चार अवस्थायें होती हैं। जिनका प्रथम कर्मग्रन्थ की गाथा २ की व्याख्या में संकेत मात्र किया गया है। यहां कुछ विशेष रूप में कथन करते हैं।
तीन और संद रस की अवस्थाओं के चारचार प्रकार इस तरह हैं-१-तोत्र, २ तीव्रतर, ३ तीव्रतम, ४ अत्यन्त तीव्र और १ मंद, २ मंदतर, ३ मंदतम और अत्यन्त मंद । यद्यपि इसके असंख्य प्रकार हैं वानी एक-एक के असंख्य प्रकार जानना चाहिये लेकिन उन सबका समावेश इन चार स्थानों में हो जाता है । इन चार प्रकारों को क्रमशः एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक कहा जाता है । अर्थात् एकस्थानिक से तीन या मंद, द्विस्थानिक से तीव्रतर या मंदतर, त्रिस्थानिक से तीवतम या मंदतम और चतुःस्थानिक से अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मंद का ग्रहण करना चाहिये। इनको इस तरह समझना चाहिये कि जैसे नीम का तुरन्त निकला हुआ रस स्वभाव से ही काटुक्र होता है जो उसकी तीन अवस्था है । जब उस तसा