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अबन्धकाल १९३ सागर आदि क्यों है ? और अनुबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाण क्या है ?
विजयाइ विज्जे तमाइ दहिसय बुतोस तेसरं । पणसी सययबंधी पल्लतिगं सुरविद्विदुगे ॥ ५८ ॥
शब्दार्थ बिलम
में
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नमाई तमःप्रभा नरक में दहिसय एक सौ सागरोपम दुतीस
पणसी - पचामी सामनेम, तीन पल्प, सुरविवि
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बत्तीस तेस त्रेसठ सागरोपम, समयबंधी निरन्तर बंध पल्लतिगं सुरद्विक और वैक्रियद्विक में |
शतक्र
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गाथार्थ - विजयादिक में बेवक और विजयादिक में तथा तमः प्रभा और ग्रैवेयक में गये जीव की उत्कृष्ट अबन्धस्थिति अनुक्रम से एक सो बत्तीस, एक सौ व सठ और एक सौ पचासी सागरोपम मनुष्यभव सहित होती है। देवद्विक और वैक्रिर्यादक का निरन्तर बंधकाल तीन पल्य है ।
विशेषार्थ - इससे पूर्व की दो गाथाओं में जो ४१ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल बतलाया वह किस प्रकार घटित होता है, इसका.. संकेत यहां किया गया है तथा अध्रुवबंधिनी तिहत्तर प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल को बतलाया है ।
यद्यपि अकाल का स्पष्टीकरण पूर्व को दो गाथाओं के भावार्थ में कर दिया गया है, तथापि प्रसंगवशात् पुनः यहां भी करते हैं ।
एक सौ बत्तीस सागर इस प्रकार होते हैं कि विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में से किसी एक विमान में दो बार जन्म लेने पर एक बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं । फिर अन्तर्मुहूर्त के लिये तीसरे गुणस्थान में आकर पुनः अच्युत स्वर्ग में तीन बार