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पंचम कर्मग्रन्थ
किये। इन सब कालों को जोड़ने से मनुष्य भव सहित चार पल्य अधिक २२ + ३१ +६६÷६६= १८५ सागर उत्कृष्ट अबन्धकाल होता है ।"
तीसरे भाग में ग्रहण की गई २५ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं - ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच कीलिका, सेवार्त संहनन, न्यग्रोध, सादि, वामन, कुब्ज, हुण्ड संस्थान, अशुभ विहायोगति, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचल रहयानकि, नीच, नपुं
स्त्रीवेद |
इन पच्चीस प्रकृतियों का अबन्धकाल मनुष्यभव सहित १३२ सागर है । जो इस प्रकार जानना चाहिए कि कोई जीव महाव्रत धारण कर मरकर दो बार विजयादिक में उत्पन्न हुआ और इस प्रकार सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल ६६ सागर पूर्ण किया । पुनः मनुष्यभव में अन्तर्मुहूर्त के लिये मिश्र गुणस्थान में आकर और पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करके तीन बार अच्युत स्वर्ग में जन्म लेकर दूसरी बार सम्यक्त्व का काल ६६ सागर पूर्ण किया | इस प्रकार ६६ + ६६ - १३२ हुए । इसीलिये उक्त पच्चीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल मनुष्यभव सहित १३२ सागर होता है ।
इस प्रकार से उक्त इकतालीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट अबन्धकाल बतलाकर अब आगे यह बतलाते हैं कि उक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट
बावीस |
१ छट्टीए नेरइओ भवपच्चयओ उ अपर defaओ य भविडं पलियचक्कं पढमकप्पे | पुब्वतकालजोगो पंचातीय सयं सचउपल्क्षं । आयदथावरचउविगलतिय गए गिंदिय
अबंधो
२ पणवीसाए अबंधो उक्कोसो होइ सम्मसीसजुए । बसी सयमयरा, दो विजए अबुए तिभवा ।।