Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्म ग्रन्थ
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जन्म लेने में दूसरी बार के ६६ सागर पूर्ण होते हैं। हम प्रकार विजयादिक में जन्म लेने से १३२ सागर पूर्ण होते हैं।
एक सौ सठ सागर इस प्रकार होते हैं कि नौवें ग्रं वेबक में इकतीस सागर की आयु भोगकर वहां से च्युत होकर मनुष्यगति में जन्म लेकर पूर्व की तरह बिजयादिक में दो बार जाने से दो बार छियासठ मागर पूर्ण करने पर एक सौ वेसठ सागर पूर्ण होते हैं।
एक सौ पचासी सागर होने के लिये इस प्रकार समझना चाहिए कि तमःप्रभा नामक छठे नरक में बाईस सागर की स्थिति पूर्ण कर उसके बाद नौबें प्रवेयक में इकतीस सागर की आयु भोगकर उसके बाद विजयादिक में दो बार छियासठ सागर पूरे करने से एक मौ पचासी सागर का अन्तराल होता है ।।
इस प्रकार इकतालीस प्रकृतियां अधिक-से-अधिक इतने काल तक पंचेन्द्रिय जीव के बंध को प्राप्त नहीं होती हैं।
अध्रुवबंधिनी प्रकृतियों के निरन्तर बंधकाल के जघन्य व उत्कृष्ट प्रमाण का विवेचन प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम उत्कृष्ट बंधकाल बतलाते कि :-पल्लतिगं सुरविउन्धिदुगे यानी देवद्विक (देवगति और देवानुपूर्वी) तथा वैक्रियाद्रिक (वैक्रिय' शरीर, वैक्रिय अंगोपांग) इन चार प्रकृतियों का बंध यदि बराबर होता रहे तो अधिक-से-अधिक तीन पल्य' तक हो सकता है। __इसका कारण यह है कि भोगभूमिज जीव जन्म से ही देवति के योग्य इन चार प्रकृतियों को तीन पल्योपम काल तक बराबर बांधते हैं। क्योंकि भोगभुमिज जीवों के नरका, तियंत्र और मनवगति के योग्य नामकर्म की प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। इसलिए परिणामों में अन्तर पड़ने पर भी इन चार प्रकृतियों की किसी विरोधिनी प्रकृति का बंध नहीं होता है।