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पंचन कर्मप्रन्य
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होना बताया है। जिससे अन्तःकोड़ाकोड़ी सामरोपम की स्थिति में यह भी कैसे संभव है ?
उक्त जिज्ञासा का समाधान यह है कि तिर्यंचगति में जो तीर्थकर नामकर्म का निषेध किया है, वह निकाचित तीर्थंकर नामकर्म की अपेक्षा से किया है अर्थात् जो तीर्थंकर नामकम अघश्य अनुभव में आता है, उसी का तियंत्रगति में अभाव बतलाया है, किंतु जिसमें उदवर्तन, अपवर्तन हो सकता है, उस तीर्थंकर प्रकृति के अस्तित्व का निषेध तियंत्रगति में नहीं किया है। इसी प्रकार तीर्थकर के भद से पूर्व के तीसरे भव में जो तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का कथन है, वह भी निकाचित तीर्थंकर प्रकृति की अपेक्षा से किया गया है। जो तीर्थकर प्रकृति निकात्रित नहीं है यानी उद्वर्तन अपवर्तन हो सकता है, वह तीन भव से भी पहले बांधी जा सकती है।
सिद्धान्त में जो तीर्थकर नामकर्म की सत्ता का तिर्यंचगति में निषेध किया है, वह तीसरे भव में होने वाली सुनिकाचित तीर्थकर
१. जं, बज्मई त त भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं ।।
-आवायक नियुक्ति १८० २, अमिह निकाइयतित्थं तिरियभवे सं निसेहियं सते।
इयरमि नत्यि दोसो उबट्टणुवटुणास । -पंचसंग्रह १४४ ३. जं वज्मइति मणिय तत्थ निकाइज इत्ति णियमोयं 1 नदबंझफनं निममा भयणा अणिका इमावत्यै ।।
-जिनमदणि क्षमाश्रमण, विशेषणवती टीका ४. जिम कर्म की उदीरणा, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, ये चारों हो
अवस्थायें न हो सकें, उसे निकाचित कहते हैं। ५. कर्मों की स्थिति और अनुभाग के वद जाने को उदतन कहते हैं। .. बड़ को की स्थिति नथा अनुभाग में अध्यनमाय विशेष में कमी का
देना अपवर्तन है।