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शतक
को अधिक स्थिति बांधते है । यचाप एकान्द्रय से विकासन्द्रियों में अधिकं विशुद्धि होती है किन्तु वे स्वभाव से ही इन प्रकृतियों की अधिक स्थिति बांधते हैं, जिससे शेष प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध का स्वामी बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों को ही बतलाया है।
प्रकृतियों के उत्कुष्ट और जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिबंध में मूल प्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट आदि भेदों को बतलाते हैं।
उक्कोसमहत्नेगरभंगा साई अणाइ धुष अधुवा । चउहा सग अजहनो सेसतिगे आउचाउसु दुहा ॥४६॥
शब्दार्थ - उक्कोसजहन्न – उस्कृष्ट और जन्य बंध, इयर - प्रतिपक्षी (अनुस्कृष्ट, अनन्छ बंध), मगा - भंग, साइसादि, मणाई-अनादि, धुव - ध्रुव, मधुवा - अध्रुव, घउहा - पार प्रकार, मग –सात मूल प्रकृतियों के, अजहन्नो अजधन्य बंध, सेस सिगे - बाकी के तीन, आउनजसु - चार आयु में, बुहा..हो प्रकार ।
गापार्य-उत्कृष्ट, जघन्य, अनुत्कृष्ट, अजधन्य, यह बंध के चार भेद हैं अथवा दूसरी प्रकार से सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव ये बंध के चार भेद हैं | सात कर्मों का अजघन्य बंध
१ (क) सत्तरसपंचतित्थाहाराणं सुहुमबादरापुञ्वो।। छध्वे गुरुवमसणी अहण्णमाण सरणी वा ।।
-गो० कर्मकांड १५१ (ब) कर्मप्रकृति बंधनकरण तथा पंत्रसंग्रह मा. २७० में जघन्य स्थिति
बंध के स्वामियों को बतलाया है।