Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
१३ उससे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपयांप्त के स्थातस्थान संख्यात गुणे हैं। १४ उससे संजी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं।
इस प्रकार स्थिति के प्रमाण में वृद्धि के साथ स्थितिस्थानी की भी संख्या बढ़ती जाती है ।
योग के प्रसंग में योगों के अल्पाबहुत्व, स्थितिस्थानों का निरूपण करने के बाद अब अपमान जोवों के प्रति समय जितने योग की वृद्धि होती है, उसका कथन करते हैं।
पड़ावण पसंख गणचिरिय अपज पठिहमसंखलोगसमा । अजनसाया अहिया सत्तसु आउसु असंखगुणा ॥५५॥
शब्दार्य - पइखणं- प्रत्येक समय में, असंखपुणविरिय - असंन्यात गुणा वीर्य वाले, अपज–अपर्याप्त जीव, पइठिईप्रत्येक स्थितिबंध में, असंखलोगसमा -असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण, अमवसाया –अध्यत्र साय, अहिया अधिक, सत्तसु -- सात कर्मों में, आजसु -आघुकर्म में, असंलगुणा - असंख्यात गुणा । ___गाथार्य-अपर्याप्त जीव प्रत्येक समय असंख्यात गुणे वीर्य वाले होते हैं और प्रत्येक स्थितिबंध में असंख्यात लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण अध्यवसाय होते हैं । सात कर्मों में तो स्थितिबंध के अध्यवसाय विशेषाधिक और आयुकर्म में असंख्यात गुण होते हैं। विशेषार्थ - पूर्व गाथा में स्थितिस्थानों का प्रमाण बतलाया है । अब यहां बतलाते हैं कि अपर्याप्त जोवों के योगम्थानों में प्रति समय असंख्यात गुणी वृद्धि होती है किन्तु पर्याप्त जीवों में ऐसा नहीं होता है । यह असंख्यात गुणी वृद्धि उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त समझना चाहिए