________________
शतक
तब नक नहीं हो सकता जब तक वे सम्यक्त्व से च्युत होकर पहले अथवा दूसरे गुणस्थान में नहीं आते. किन्तु पहले अथवा दूसरे गुणस्थान मे आने पर भी कभी-कभी उक्त प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । इन सब बातों को ध्यान में रखकर उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट अबन्धकाल को इन दो गाथाओं में बतलाया है।
इन इकतालीस प्रकृतियों को तीन भागों में विभाजित कर अबंधकाल बतलाया है । पहले भाग में सात, दूसरे भाग में नौ और तीसरे भाग में पच्चीस प्रकृतियों का ग्रहण किया है । पहले भाग में ग्रहण की गई नात प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-तिर्यंचन्त्रिक (तिर्यंचति, तिर्यंचानुपूर्वी नियंत्रायु), नरकनिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु)
और उद्योतु । टनका उत्कृष्ट अबन्धकाल-नरभवजुयं सचउपरल तेसझेंमनुष्य भव महित चार पल्य अधिक एक सौ बेसठ सागरोपम बतलाया है । जिमका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है - कोई जीव तीन पल्य की आयु बांधकर देवकुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुआ। वहां उसके उक्त सात प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि ये सात प्रकृतियां नरक, तिर्यंच गति बोच्च , अतः इन प्रकृतियों का बंध वही करता है जो नरकगति या तियंचगति में जन्म ले सकता है । किन्तु भोगभूमिज जीव मरकर नियम म देव ही होते हैं। अतः इन नरक, तिर्यत्र गति योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। इसके बाद भोगभूमि में सम्यक्त्व को प्राप्त करके वह एक. पल्य की स्थिति वाले देवों में उत्पन हुआ, अतः मम्यक्त्व होने के कारण वहां भी उसने उक्त सात प्रकृतियों का बंध नहीं किया। इसके बाद देवगति में सम्यक्त्व महित मरण करके मनुप्यति में जन्म लेकर और दीक्षा धारण कर नौवें ग्न वेयक में ३१ सागरापम को जियोत बाला देव हुआ । उत्पन्न होने के अन्तमुहूर्त के याद सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्या दृष्टि हो गया । मिथ्याइष्टि हो जाने पर भी मवेयक देवों के उक्त सात प्रकृतियां जन्म से हो न बंधने