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शतक
३३. शेष देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्यों का उत्कृष्ट योग उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा है ।
इस प्रकार में सब जीवों के योग का अल्यबहुत्व जानना चाहिये ।२ मबत्र गुणाकार का प्रमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग जानना अर्थात् पहले-पहले योगस्थान में पल्य के असंख्यातवें भाग का गुणा करने पर आगे के योगस्थान का प्रमाण आता है। इसका यह अर्थ हुआ कि ज्यों-ज्यों उत्तरोत्तर जीव को शक्ति का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों योगस्थान में भी वृद्धि होती जाती है । जघन्य योग से जीव जघन्य प्रदेशबंध और उत्कृष्ट योग से उत्कृष्ट प्रदेशबंध करता है।
इस प्रकार म बोगस्थानों के अल्पबद्भुत्व का कथन करने के पश्चात् अब स्थितिस्थानों में कथन करने में - शिकाणा अपजेयर संखगुणा- अपर्याप्त से पर्याप्त के स्थितिस्यान संख्यात गुणे हैं किन्तु
__ कपंप्रकृति (बंधनकरण) में अमजी पंचेन्द्रिय परिप्त के उत्कृष्ट योग से अनुतरवामी देवों का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा बतलाया है ...
अमणाणुत्तरगेविन भोगभूमिगयतइयतणुगेसु । फमसो असंखगुणिो सेसेमु म जोग उक्कोसो ।। १६ ॥
जब अमंज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्त के उस्कृष्ट योग को कहने के बाद अनुत्तरवासी देवों आदि के उत्कृष्ट प्रोग का कथन करेंगे तो २८ वा स्थान २७ धा होगा और कुल मिलाकर मब स्थान ३२ होंगे । कर्मप्रकृति में इसी प्रकार है। सब जीवों के योग का अल्पयत्व भगवती २५।१ में बतलाया है । उसमें पर्याप्ल के जघन्य योग से अपर्याप्त का उत्कृष्ट योग अधिक कहा है । बोल
भी आगे पीछे है। इसका कारण तो बहुभुतगम्य है। ३ गो. कर्मकांड ना० २१८ में २४२ नक योगस्यानों का विस्तृत वर्णन किया
है । इसका उपयोगी अंधा परिशिष्ट में देखिये ।