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पचम कर्म ग्रन्थ
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इतनी विशेषता है कि 'अपजविए असंखगणा' द्वोन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान अनंख्यात गृणं है। इसका पाटीकरण नीचे किया जा रहा है। ___ किसी कर्मप्रकृति को जवन्य स्थिति से लेकर एक-एक समय बढ़तेबढ़ते उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त स्थिति के जो भेद होते हैं, वे स्थितिस्थान' कहलाते हैं। जैसे किसी कर्मप्रकृति की जघन्यस्थिा 1 समय और उत्कृष्ट स्थिति १८ समय है तो दस से लेकर अठारह तक स्थिति के नौ भेद होते हैं, जिन्हें स्थितिस्थान कहते हैं । ये स्थितिस्थान भी उत्तरोत्तर संख्यात गुणे हैं किन्तु द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे होते हैं । उनका क्रम इस प्रकार है१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त के स्थितिस्थान सबसे कम हैं। २ उससे बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यातगुणे हैं । ३ उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे है । ४ उसस बादर एकेन्द्रिय पर्यास्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ५ उसस द्वीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं । ६ उससे द्वीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे है । ७ उससे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। - उससे त्रीन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात पुणे है। में उससे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। १० उससे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गुणे हैं। ११ उससे असंजी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गृणे हैं । १२ उससे अमंत्री पंचेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिस्थान संख्यात गणे हैं।
१ तत्र जन्य स्थिते रारभ्य एकसमयवृद्ध,गा गर्नोत्कृष्ट निम्थितिपर्यवसाना
ये स्थितिभेदास्ते स्थितिस्थानान्युच्यन्ते । -पंचम कर्मप्रत्य टीका, पृ० ५५