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यादर
शब्दार्थ ---जहबंधी - साधु का जघन्य स्थितिबंध, वायर पर्याप्त एकेन्द्रिय असंखगुण - असंख्यात गुणा, सुमपज्ज– सूक्ष्म पर्याप्त एकेन्द्रिय का, हिंगो - विशेषाधिक, एसि - इनके (बादर सूक्ष्म एकेन्द्रिय के), अजाण --- अपर्याप्त का लहू - जघन्य स्थितिबंध, सुहूमे अश्मपजपज गुरू — सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थिति अंध ।
बियबीन्द्रिय पज्ञ्जअपज्जेअपर्याप्त और इतर पर्याप्त,
बियगुरू — द्वीन्द्रिय का उत्कृष्ट, हिंगो अधिक, एवं इस प्रकार से, तिच असन्मित्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंजी पंचेन्द्रिय में, नवरं -- इतना विशेष, संतगुणो- सख्यात गुणा, वियक्रमणपज्जेडीद्रिय पर्याप्त और असंजी पर्याप्त में ।
लहू - जधन्य स्थितिबन्ध, पर्याप्त अपर्याप्त में अपजेयर
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तो - उसको अपेक्षा, जद्रजिद्वोघो
साधू का उत्कृष्ट स्थिति
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देश विरति का जघन्य, सम्यग्दृष्टि के चार प्रकार
बंध संखगुण - संख्यात गुणा बेसबिरमहल इयरो उत्कृष्ट स्थितिबंध, सम्पच के स्थितिबंध, सम्निचउरो सभी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि के चार, बंधा स्थितिबन्ध, अणुकम अनुक्रम से संजगुणा संख्यात
गुणा ।
शतक
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गाभार्थ - साधु का जघन्य स्थितिबंध सबसे अल्प होता है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध उससे असंख्यात गुणा और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उससे विशेषाधिक होता है । इनके (बादर, सूक्ष्म एकेन्द्रिय के ) अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध उससे अधिक होता है । उसकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध अनुक्रम से विशेषाधिक होता है ।