________________
re
लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय से संयमी के होने वाले उत्तरोत्तर अधिक स्थितिबंध से यही स्पष्ट होता है कि चैतन्यशक्ति के विकास के साथ मंक्लेश की संभावना भी अधिक अधिक होती है । एकेन्द्रिय से लेकर अमंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त सभी जीव प्रायः हिताहित के विवेक से रहित मिध्यादृष्टि होते हैं और उनमें इतनी शक्ति नहीं होती कि वे अपनी विकसित चैतन्य शक्ति का उपयोग संक्लेश परिणामों के रोकने में करें । इसलिए उनको उत्तरोत्तर अधिक ही स्थितिबंध होता है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रिय होने के कारण संयमी मनुष्य की शक्ति विकसित होती है। जिससे संयमी होने के कारण संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा उनका स्थितिबंध बहुत कम होता है किन्तु असंजी पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से वह अधिक ही है ।"
शतक
१ गो० कर्मकाड में स्थितिबंध का अपबहुत्व तो नहीं बताया है किन्तु एकेद्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों में स्थितिबंध का निरूपण किया है । जिससे अल्पबहुत्व का ज्ञान हो जाता है, एकेन्द्रिय आदि जीवों के अवान्तर भेदों के स्थितिबंध का निरूपण निम्न क्रम से किया है
वासूप बासू वरट्ठिदीओ सुबाअ सूबाप जहणकालो ।
वीवधी विजष्णकालो सेसाणमेव वचणीयमदं ॥ १४८ ॥
बाप - वादर सूक्ष्म पर्याप्त और वासूत्र - वादर सूक्ष्म अपर्याप्त दोनों मिलाकर कार तरह के जीवों के कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तथा मुबा -- सूक्ष्म बादर अपर्याप्त सुबा - सूक्ष्म बादर पर्याप्त जीवों के कर्मों की जघन्य स्थिति, इस तरह एकेन्द्रिय जीव की कर्मस्थिति के आठ भेद हैं। बीबीबर: हीन्द्रिय पर्याप्त और द्वीन्द्रिय अपर्याप्त इन दोनों की उत्कृष्ट कर्मस्थिति तथा हीन्द्रिय अपर्याप्त और द्वीन्द्रिय पर्याप्त धन दोनों का जघन्य काल, इस तरह दीन्द्रिय की स्थिति के चार भेद हैं । (शेष पृष्ठ ११५ पर)