Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्म ग्रन्थ
१६३ स्थिनिबंध के अल्पबहुत्व दर्शक इन स्थानों की संख्या ३६ है। यद्यपि जीवममास के १४ भेद हैं और लोक जीवसमाम की जयन्टर और उत्कृष्ट के भेद से दो-दो स्थितियां होती हैं। जिससे जोवसमासों की अपेक्षा २८ स्थान होते हैं, किन्तु स्थितिबंध के अल्पबहुत्व के निरूपण में अविरत सम्यग्दृष्टि के चार स्थान, देशबिरति के दो स्थान, संयत का एक स्थान और सूक्ष्मसंपराय का एक स्थान और मिलाने से कुल छत्तीस स्थान हो जाते हैं ।
इन छत्तीस स्थानों में आगे आगे का प्रत्येक स्थान पूर्ववर्ती स्थान से या तो गुणित है या अधिक है।' उक्त स्थितिस्थानों को यदि ऊपर से नीचे की ओर देखा जाये तो स्थिति अधिकाधिक होती जाती है, और नीचे से ऊपर की ओर देखने पर स्थिति घटती जाती है। इससे यह सरलता से समझ में आ जाता है कि कौन-सा जीव अधिक स्थिति बांधता है और कौन-सा कम । एकेन्द्रिय से होन्द्रिय, द्वीन्द्रिय सत्रीन्द्रिय, वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय से असंझी पंचेन्द्रिय बेः अधिक स्थितिबंध होता है और असंजी पंचेन्द्रिय से संयमी के, संयमो से देशविरति के, देशविति से अविरत सम्यग्दृष्टि के और अविरत सम्बग्दृष्टि से संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्याइष्टि के स्थितिबंध अधिक होता है। उनमें भी पर्याप्त के जघन्य स्थितिबंध से अपर्याप्त का जघन्य स्थितिबंध अधिक होता है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय से
किसी राशि में गुणा करने से उत्पन्न होने वाली राशि गुणित राशि कहलाती है, जैसे ४ से २ का गुणा करने पर आठ लब्ध आता है, यह आठ अपने पूर्ववर्ती ४ से दो गुणित है। किन्तु ४ में २ का भाग देकर लब्ध २ को ४ में जोड़ा जाये तो ६ संख्या होगी । उसे विशेषाधिक या कुछ अधिक कहा जायेगा । क्योंकि यह राशि गुणाधिक नहीं है किन्तु भागाधिक है । मुणित और विशेषाधिक में यही अन्तर है।