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पातक
गाथायं-सूक्ष्म निगोदिया लक्ष्यपर्याप्त जीव को पहले ममय में अल्प योग होता है, उसकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय, विकलत्रिक, असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपप्तिक के पहले समय में क्रम से असंख्यात गुणा होता है। उसके अनन्तर प्रारंभ के दो लब्ध्यपर्याप्त अर्थात् मूक्ष्म और वादर एकेन्द्रिय का उत्कृष्ट योग असंख्यात गुणा है। उससे दोनों ही पर्याप्त का जघन्य व उत्कृष्ट योग अनुक्रम से असंख्यात गुणा है।
उसकी अपेक्षा अपर्याप्त अस का उत्कृष्ट योग, पर्याप्त त्रस का जघन्य और लत्कृष्ट योग अनुक्रम से असंख्यात गुणा है। इसी प्रकार स्थितिस्थान भी अपर्याप्त और पर्याप्त के संख्यात गुणे होते हैं किन्तु अपर्याप्त द्वीन्द्रिय के स्थितिस्थान असंख्यात गुणे हैं।
विशेषाय-- इन दो गाथाओं में योग के अल्पबहुत्व का कथन किया गया है । योग का अर्थ है सकर्मा जीव की शक्तिविशेष जो कर्मों के ग्रहण करने में कारण है | योग के द्वारा कर्म रज को आत्मा तक लाया जाता है। कर्मप्रकृति (बंधनकरण) में योग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है
परिणामा लंबण गहण साहणं सेण लवनामसिगं ।। अर्थात् पुद्गलों का परिणमन, आलम्बन और ग्रहण के साधन यानी कारण को योग कहते हैं।' आत्मा में वीर्य-शक्ति है और
१ गो. जीवकांड गा. २१५ में योग का स्वरूप इस प्रकार बतलाया है...
पुग्गलविनाइदेहोदयेण मणमणकायजुत्तस्म । जीवरम जा हु मनि कम्मागमकारणं जोगी ।।
पुद्गल विपाकी शरीर नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय में युक्त जीव को जो गति कर्मों के ग्रहण करने में कारण है, उमे योग कहते हैं।