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पंचम कर्मग्रन्थ
संसारी जीव में वह शक्ति धीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से प्रगट होती है । उस वीर्य के द्वारा जीव पहले औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण करके उन्हें औदारिक आदि शरीर २५ :रिणमा : सबा बावा, या मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्दास आदि रूप परिणमाता है और परिणमा कर उनका अवलंबन यानी सहायता लेता है । यह क्रम सतत चलता रहता है । पद्गलों को ग्रहण करने के तीन निमित्त है—मन, वचन और काय | इसीलिये योग के भी तीन नाम हो जाते हैं—मनोयोग, वचनयोग, काययोग ।' मन के अवलंबन से होने वाले योग-व्यापार को मनोयोग, वचन के अवलंबन से होने वाले योग व्यापार को बचनयोग और श्वासोच्छ्वास आदि के अवलम्बन से होने वाले योग व्यापार को काययोग कहते हैं । सारांश यह है कि जीव में विद्यमान योग नामक शक्ति से वह मन, वचन, काय आदि का निर्माण करता है और ये मन, वचन और काय उसकी योग नामक शक्ति के अवलंबन होते हैं। इस प्रकार से योग पुद्गलों को ग्रहण करने का, ग्रहण किये हए पुद्गलों को शरीगानि रूप परिणमाने का और उनका अवलंबन लेने का साधन है।
योग, वीर्य, स्थाम, उत्साह, पराक्रम, चेष्टा, शक्ति, मामर्थ्य, ये योग के नामान्तर हैं।
१ कायवाङ्मन: कर्मयोगः ।
-सत्वायत्र ६१ २ योगों की विशद व्याख्या और भेदों के नाम प्राधि के लिये चतर्थ कर्मग्रन्थ
में योगमार्गणा को देखिये । ३ जोगवे विग्यिं ग्रामों का पाकमो तहा बिट्टा । मनी सामत्थं दिय जोगरम हवन्ति पजाया ।।
- पंचसंग्रह ३६६