Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
पंचम कर्मग्रन्थ
१८५
कोड़ी सागर प्रमाण होता है और जो सत्तर आदि कोडाकोड़ो सागरोपम उस्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, वह मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है । सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबंध होन का कारण यह है कि इन गुणस्थानों वाले जीव मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन कर देते हैं, जिससे उनके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है।
प्रश्न- उक्त कथन पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थों में मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन करने वालों को भी मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबंध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम बतलाया है । अतः यह कैसे माना जाय कि सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक जीव मिथ्यात्वग्रन्थि का भेदन कर देते हैं, अतः अन्तःकोडाकोड़ी सागर प्रमाण से अधिक स्थिति का बंध नहीं करते हैं।
उत्तर यह ठीक है कि ग्रन्थि का भेदन करने वालों को भी उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, किन्तु सम्यक्त्व का दमन करके जो पुनः मिथ्यात्व मुणस्थान में आते हैं, उनके ही यह उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । यहां तो ग्रन्थि का भेदन कर देने वाले सासादन आदि गुणस्थान वालों के ही उत्कृष्ट स्थितिबंध का निषेध किया है। आवश्यक आदि में तो सैद्धान्तिक मत का संकेत करके प्रन्थि का भेदन कर देने वाले मिथ्याइष्टि को भी उत्कृष्ट बंध का प्रतिषेध किया है ।' कार्मप्रन्थिक मत से सादि मिथ्याइष्टि को भी मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति बंधती है लेकिन उसमें तीव्र अनुभाग शक्ति नहीं होती है 1 अतः सासादन से
५ यतोऽयाप्तसम्यक्त्वस्त परित्यागेऽपि न भूमो ग्रन्थिमुल्लङ्घमोत्कृष्ट
स्थिती: कर्मप्रकृतीबंध्नाति, 'बघेण न बोलइ कयाइ' इति वचनात् । एष: सिद्धान्तिकाभिप्रायः । कार्मग्रंथिकास्तु भिन्नग्रन्थैरप्युस्कृष्टस्थितिबंधों भवतीति प्रतिपत्राः ।
-बाप. नि. दीका पृ० १११