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पंचम कर्मग्रन्थ
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इसी प्रकार इन उनतीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट बंध संक्लिष्ट परिणामी पंचेन्द्रिय जीव करता है और अन्तर्मुहूर्त के बाद अनुत्कृष्ट बंध करता है और बाद में पुनः उत्कृष्ट बंध करता है । इस प्रकार बदलते रहने से ये दोनों बंध भी सादि और अव होते हैं। शेष ७३ प्रकृतियां अध्रुवबंधिनी हैं और उनके अनुवबंधिनी होने के कारण ही उनके जघन्य, अजधन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट ये चारों ही स्थितिबंध सादि और अध्रुव होते हैं।'
संज्वलन चतुष्क आदि अठारह प्रकृतियों में से प्रत्येक के अजघन्य बंध के सादि आदि चार विकल्प तथा शेष उत्कृष्ट बंध आदि तीन स्थितिबंधों में से प्रत्येक के शाति और अधा गिला होने रोक प्रकृति के दस-दस भंग होने से १८० तथा एक सौ दो प्रकृतियों में से प्रत्येक के उत्कृष्ट आदि चार-चार स्थितिबंध और इन चारों के भी सादि व अध्रुव दो-दो विकल्प होने से आठ-आठ भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये भंग १०२४४८४०८४२८१६ होते हैं । उत्तर प्रकृतियों के कूल मिलाकर १०+-१६ =६ भंग होते हैं और इनमें मूल प्रकृतियों के ७८ भंगों को मिलाने से सब मिलाकर १०७४ स्थितिबंध के भंग होते हैं ।
नाणंत रायदसण चक्कसंजसण ठिई अजहन्ना । चउहा माई अध्रुषा सेसा इयराण सम्वाओ ।।
-पंचसंग्रह श६० इस गाथा की टीका में उत्तर प्रकृतियों के स्थितिबंध के भंगों का विवेचन किया गया है । इसी प्रकार से मो० कर्मकांड मा. १५३ में भी भंगों का कथन किया है
मंजलणसूहुमघोस घाीणं बदुविधो दु अजहणो। सेमतिया पुण दुविहा सेसाणं घविधावि दुधा ।।