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शतक
इस प्रकार से मुल एवं उतर प्रकृतियों के स्थितिबंध में मादि आदि भंगों का निरूपण करने के बाद अब गुणस्थानों में स्थितिबंध का निरूपण करते हैं। गुणस्थानों में स्थितिबंध
साणाइअपुरवते अपरतो कोडिकोडिनो न हिगो । बंधो न हुहोणो न य मिच्छे भवियरसन्निमि ॥४॥
शब्दार्थ-सापाइअपुर्वते-सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक, अपरंतो कोडिकोलिओ-अंत:कोडाकोड़ी सामरोपम से, न हिंगो-अधिक (बंध) नहीं होता है, बंधो - बंध, न हूनहीं होता है, हीको-हीन, न य–तथा नहीं होता है, मिन्छमिथ्याष्टि, भश्वियरसनिमि-भव्य संशी व इतर अमन्य संजी में ।
गाथाथ-सासादन से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है और न हीन बंध होता है। मिथ्यादृष्टि भव्य संज्ञी और अभव्य संज्ञी के भी हीन बंध नहीं होता है। विशेषार्थ-पहले सामान्य से और एकेन्द्रिय आदि जीवों की अपेक्षा से स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया गया है। अब इस गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा से उसका प्रमाण का कथन किया जा रहा है कि किस गुणस्थान में कितना स्थितिबंध होता है।
पूर्व में कर्मों की सत्तर, तीस, बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। उसमें से साणाइअपुलंतो-यानी दूसरे सासादन गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान तक अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर से अधिक स्थितिबंध नहीं होता है । यानी दूसरे से लेकर आठवें गुणस्थान तक होने वाला बंध अन्तःकोड़ा