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शतक
भनुष्य का ग्रहण किया तथा तीर्थकर प्रकृति का बंध करने से पहले जो मनुष्य नरकायु का बंध नहीं करता है वह तीर्थकर प्रकृति का बंध करने के वाद नरक में उत्पन्न नहीं होता है । अतः वैसे मनुष्य का ग्रहण किया गया जो तीर्थकर प्रकृति का बंध करने से पहले नरकायु बांध लेता है। कोई-कोई समिक समाति, जीद राजाणित जैसे) सम्यक्त्व दशा में मरकर नरक में जा सकते हैं किन्तु विशुद्ध परिणामों के कारण वे जीव तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं कर सकते हैं। अतः तीर्थंकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रकरण में मिथ्यात्व के अभिमुख अविरत सम्याइष्टि मनुष्य का ही ग्रहण किया है।
तीर्थकर प्रकृति के उत्कृष्ट स्थितिबंध के संबन्ध में उक्त कथन का सारांश यह है कि यद्यपि चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान तक तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है किन्तु उत्कृष्ट स्थितिबंध के लिए उत्कृष्ट संक्लेश की आवश्यकता है और तीर्थकर प्रकृति के बंधक मनुष्य को उत्कृष्ट संक्लेश उसी दशा में हो सकता है जब वह मिथ्यात्व के अभिमुख हो और ऐसा मनुष्य मिथ्यात्व के अभिमुख तभी होता है जब उसने तीर्थकर प्रकृति का वंध करने के पहले नरकायु का बंध कर लिया है। बद्धनरकायु अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य जब मिथ्यात्व के अभिमुख होता है, उसी समय में उसके तीर्थकर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । क्षायिक सम्यक्त्व सहित जो नरक में जाता है वह उससे विशुद्धतर है अतः उसका यहां ग्रहण नहीं किया गया है।
१ तथा चोक्तं तकचूर्णी - 'तित्ययरनामस्स उपकोसठिई मणुको अरराज भो
वेयगसम्मद्दिठी पुच्चं नरगबहानगो नरगाभिमुहो मिच्छत्तं पश्धिज्जिही इति अंतिमे ठिई बन्धे वट्टमाणो बधइ, तबंधगेसु अइसकिलिट्ठो त्ति काउं । .. जो सम्मत्तेणं खाइगेणं नरगं बच्चई सो तओ विसुद्धपरोत्ति का उ' तम्मि प्राणकोसो न हबइ ति ।' -पंचसंग्रह प्र. माग, मसथगिरि टीका एक ना