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पंचम कर्मग्रन्थ
भी, आउ-चार आयु को, पापरपजेगिदि-बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय, .-और, मेसाणं—शेष प्रवृतियों को।
गाथार्थ-तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, उद्योत नाम, संवात संहनन का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिथ्यात्वी देव और नारक और बाकी की ६२ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध चारों गति वाले मिथ्यादृष्टि जीव करते हैं।
आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म का जघन्य स्थितिबंध अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान में तथा संचलन कषाय और पुरुषवेद का जघन्य स्थितिबंध अनिवृत्ति बादर नामक नौवें गुणस्थान में होता है।
साता वेदनीय, यशःकीर्ति, उच्च गोत्र, पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अंतराय इन प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंत में होता है। वैक्रियषट्क का जघन्य स्थितिबंध असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच करता है , चार आयुओं का जघन्य स्थितिबंध संझी
और असंझी दोनों ही करते हैं तथा शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय जीव करता है।
विशेषार्थाथा ४४ के पूर्वार्ध में प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों का तथा उत्तरार्ध व गाथा १५ मैं जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन किया गया है ।
पूर्व गाथा में १८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाया था और अब शेष रही ८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों को बतलाते हुए कहते हैं कि तिर्यंचद्धिक (तियंचगति, तिर्यंचानुपूवी), औदारिकद्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग), उद्योत नाम और सेवा संहनन, इन छह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध देव और नारक करते हैं ।