________________
१७२
शतक
देव और नारकों के उक्त छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने का कारण यह है कि उक्त प्रकृतियों के बंधयोग्य संक्लिष्ट परि णाम होने पर मनुष्य और तिच इन छह प्रकृतियों को अधिक-सेअधिक अठारह सागर प्रमाण ही स्थिति का बंध करते हैं। यदि उससे अधिक संक्लेश परिणाम होते हैं तो इन प्रकृतियों के बंध का अतिक्रमण करके वे नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । किन्तु देव और नारक तो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के होने पर भी तियंचगति के योग्य ही प्रकृतियों का बंध करते हैं, नरकगति के योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं कर सकते हैं। क्योंकि देव और नारक भरकर नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं । इसीलिए उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों से युक्त देव और नारक ही इन छह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण का बंध करते हैं ।
उक्त छह प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के प्रसंग में इतना विशेष समझना चाहिये कि ईशान स्वर्ग से ऊपर के सनत्कुमार आदि स्वर्गो के देव ही सेवार्त संहनन और औदारिक अंगोपांग का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं, ईशान स्वर्ग के देव नहीं करते हैं। क्योंकि ईशान स्वर्ग तक के देव उनके योग्य संक्लेश परिणामों के होने पर भी दोनों प्रकृतियों की अधिक से अधिक अठारह सागर प्रमाण मध्यम स्थिति का बंध करते हैं और यदि उनके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होते हैं तो एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । सनत्कुमार आदि के देव' उत्कृष्ट संक्लेश होने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं, एकेन्द्रिय में उनका जन्म नहीं होने से एकेन्द्रिय योग्य प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । अतः सेवार्त संहनन और ओदारिक अंगोपांग इन दो प्रकृतियों की बोस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का बंध उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम वाले सनत्कुमार आदि स्वर्गों