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स्थितिबंध नहीं हो सकता है। किन्तु भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के यदि इस प्रकार के संक्लिष्ट परिणाम होते हैं तो वे एकेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । क्योंकि देव मरकर नरक में जन्स नहीं लेते हैं ।
इसीलिये विकलत्रिक आदि
कृतियों का
कृष् dr मनुष्य और नियंत्र गति में तथा एकेन्द्रिय आदि तीन प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध ईशान स्वर्ग तक के वैमानिक देवों के बतलाया है। इन अठारह प्रकृतियों के सिवाय शेष ६८ प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के स्वामियों तथा सभी बंधयोग्य १२० प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध के स्वामियों का कथन आगे किया जा रहा है ।
तिरिउरलदुगुज्जोय छिट्ठ सुरनिरय सेस चजगइया । आहारजिणमपुरुषोऽनिट्ठि संजलण पुरिस लहं ॥४५॥ सायज सुरुचाधरणा विग्ध सुमो विउचिछ असन्नी । सन्नावि आउ बायरपज्जेगिदिउ साणं ॥ ४५ ॥
शब्दार्थ - तिरिउरलयुग तिर्यवद्विक और औदारिकद्विक, उम्शोघं उद्योत नामकर्म, लिट-सेवार्त संहनन सुरनिरय- देव और नारक, सेस-वाको की चगइया -जारों गति के मिथ्यादृष्टि, आहारजिणं आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म को, अपुथ्वी - अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती, अनि अनिवृत्ति
बादर संपेराय चाला संजलण पुरिस
सज्वलन कषाय और पुरुष
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वेद का लहं— जघन्य स्थितिबंध |
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शतक
सायनसुख - माता वेदनीय, यशःकीति नामकर्म, उच्च गोत्र, घावरणा विश्यं ज्ञाताबरण पांच दर्शनावरण चार और अंतराय पांच सुमो सुत्रमपराय गुणस्थान नाला, विधिकियषक, असन्नी असंझी पंचेन्द्रिय पर्याप्त सभी-संशी, वि
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