Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पासक
–शेष ६३ प्रकृतियों का बंध प्रमत्तसंयत्त गुणस्थान में होता है । शोक, अरति, अस्थिरद्विक, अयशःकीर्ति और असातादनीय -इन छह प्रकृतियों का बंधविच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से और आहारकद्विक का बंध होने से अप्रमत्त संयत गुणस्थान में ५ प्रकृतियों का और यदि कोई जीव छठे गुणस्थान में देवायु के बन्ध का प्रारम्भ करके उसे उसी गुणस्थान में पूरा कर लेता है तो उसकी अपेक्षा अरति आदि छह प्रकृतियों का तथा देवायु कुल सात प्रकृतियों का बंधविच्छेद कर देने से ५८ प्रकृतियों का बंध माना जाता है।
प्रमत्त मुनि जो देवायु के बंध का प्रारम्भ करते हैं, उनकी दो अवस्थायें होती हैं १- उसी गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ करके उसी गुणस्थान में उसकी समाप्ति कर देते हैं, २- छठे गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ करके सातवें मुणस्थान में उसकी पूर्ति करते हैं। इसका. फलितार्थ यह निकलता है कि अप्रमत्त अवस्था में देवायु के बंध की समाप्ति तो हो सकती है, किन्तु उसका प्रारम्भ नहीं होती है। इसलिये देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी अप्रमत्त मुनि न होकर अप्रमत्त भाव के अभिमुख प्रमस संयमी को बतलाया है।' __आहारकद्विक, तीर्थंकर और देवायु के सिवाय शेष ११६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध मिथ्या दृष्टि ही करता है।-मिच्छट्ठिी ६ सर्वार्थसिद्धि में भी देवायु के श्रध का प्रारंभ छठे गुणस्थान में बतलाया
देवा बंधारम्भस्य प्रमाद एव हेतुरप्रमादोऽपि तत्पत्यामन्त्रः । २ मुम्बु कम्मटिदीणं मिच्छाइट्टी दु बंधयो भणिदो । आहारं नित्थयरं देवा वा विमोत्तण ।।
-- गो० कर्मकांड १३५