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शतक
होकर छठे प्रमत्त गुणस्थान में आता है,लेकिन देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के अभिमुख प्रमत्तसंयत मुनि के ही होता है । क्योंकि यह स्थिति शुभ है । अतः इसका बंध विशुद्ध दशा में ही होता है और यह विशुद्ध दशा अप्रमत्त भाव के आभभु प्रमससंपत मुनि के ही होती है।
आहारकद्विक और देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध होने के उक्त कथनों का सारांश यह है कि आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग इन दो प्रकुतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्त गुणस्थान के अभिमुख हुए अप्रमत्तसंयत को होता है। इसके बंधयोग्य अति संक्लिष्ट परिणाम उसी समय होते हैं तथा देवायु के उत्कृष्ट स्थितिबंध का स्वामी भी अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती है किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रमत्त गुणस्थान में आयुबंध को प्रारंभ करके अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का आरोहण कर रहा हो । यानी आहारकद्विक का बंध सातवें गुणस्थान से छठे गुणस्थान की ओर अवरोहण करने वाले अप्रमत्तसंयत मुनि को और देवायु का बंघ छठे गुणस्थान में प्रारम्भ करके सातवें गुणस्थान की ओर आरोहण करने वाले मुनि को होता है।
सव्वाण सिइ असुभा उम्कोसुक्कोससंफिसेसेण । इयरा उ विसोहीए सुरनरतिरिआउए मोत्तु।
.. पंचसंग्रह ५५ ५ २ (क) आहारकशरीर तथा आहारकरंगोपांग, ए वे प्रकृतिनो उत्कृष्ट
स्थितिबंध प्रमसगुणठाणाने सन्मुख थयेलो एवो अप्रमत्त यति ते अप्रमन गुणठाणाने चरमबंधे बांधे । एना बंधक माहे पहिज अति मक्लिष्ट छ । तथा देवताना आयुनो उत्कृष्ट स्थितिबंधस्वामी अप्रमत्त गुणस्थानकवर्ती माधु जाणवो । पण एटलु विशेष जे प्रमत्त गुणस्थानके आयुबंध आरंभीने अप्रमत्ते बहतो साधु बोधे ।
-पंचम कर्मप्राय रखा (मगले पृष्ठ पर देखें)