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पंचम कर्मग्रन्थ
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देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध विशुद्ध भावों से होने पर जिज्ञासु प्रश्न करता है कि प्रमत्त गुणस्थान की बजाय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ने ही उसका उत्कृष्ट स्थिति बतलाए था। क्योंकि प्रमत्तसंयत मुनि से, भले ही वह अप्रमत्त भाव के अभिमुख हो, अप्रमत्त मुनि के भाव विशुद्ध होते हैं ।
इसका समाधान यह है कि अप्रमत्तस्यत गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारम्भ नहीं होता है किन्तु प्रमत्त गुणस्थान में प्रारम्भ हुआ देवायु का बंध कभी-कभी अप्रमत्त गुणस्थान में पूर्ण होता है । इसीलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती किन्तु अप्रमत्त संयत गुणस्थान की ओर अभिमुख मुनि को देवायु का बंधक कहा है। द्वितीय कर्मग्रन्थ में छठे, सातवें गुणस्थान में जो बंध प्रकृतियों की संख्या बतलाई है, उससे भी यही आशय निकलता है। छठे, सातवें गुणस्थान की बंध प्रकृतियों की संख्या बतलाने वाली द्वितीय कर्मग्रन्थ की गाथायें इस प्रकार हैं
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तेषट्ठि पमतं सोग अरह अपिरयुग अजस मस्सायं । बुच्छिन छम्च सराव ने राजपा निट् ॥७॥ गुणसट्ठि अध्यमत्ते सुराउबंध सु जद इहान । अट्ठावण्णः जं आहारगडुंग
अन्नह
बंध ||5||
(ख) देवागं पमतो आहारथमपमत्तविरदो दु । तित्यरं च मणुस्सो अविरदसम्म समज्जे ||
न० कर्मकांड १३६
देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबंध अप्रमत भाव के अभिमुख प्रमत्त यति करता है और आहारकद्विकका उत्कृष्ट स्थितिबंध प्रमत्त भाव के अभिमुख अप्रमत्त पति करता है ।
(ग) कर्मप्रकृति स्थितिबंधाधिकार गा० १०२, उपाध्याय यशोविजयजी कृत टीका में भी इसी प्रकार का संकेत है ।