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पंचम कर्मग्रन्थ
की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने से प्राप्त लब्ध के बराबर समझना चाहिए ! जैसे कि पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो बेदनीय और पाँच अंतराय के वर्गों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम का भाम देने पर प्राप्त लब्ध एकेन्द्रिय जीव के उत्कृष्ट स्थितिबंध का प्रमाण होगा । इस प्रकार से दोनों की कथन शैली में भिन्नता होने पर भी मूल आशय समान है। __ इसी क्रम से अन्य प्रकृतियों की स्थिति निकालने पर मिथ्यात्व की एक सागर, सोलह कषायों को सागर, नौ नोकषायों की सागर, वक्रियषट्क', आहारकद्विक और तीर्थकर नाम को छोड़कर एकेन्द्रिय
१ एकेन्द्रियादिक जीद के कामियपटक हों या . उस
च उत्कृष्ट स्थिति नहीं बतलाई है किन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय को उसका बध होता है । अतः उसकी अपेक्षा पचसग्रह में बैंक्रियषट्क की निम्न प्रकार से जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है
वश्विक्कि तं सहसताहियं जं अग्निणो तेसि । पलियासखंसूणं ठिई अबाहूणियनिसेगो ॥
—पंचसंग्रह १४६ वैक्रियपदक की उत्कृष्ट स्थिति को मिध्यात्व की स्थिति द्वारा भाग देने पर. जो लब्ध आये उसको हजार से गुणा करने पर प्राप्त गुणनफल में से पल्पोपम का असंख्यातवां भाग न्यून पंक्रियषट्क की जघन्म स्थिति है। अत्राधाकाल न्यून निषेक काल है। वंक्रियषट्क की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है। यहां सना विशेष जानना चाहिये कि नरकदिक, क्रियनिक की उत्कृष्ट स्थिति वीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की और देवद्धिक की उत्कृष्ट स्थिति दस कोड़ाकोडी सागरोपम बत्त लाई है, तथापि यह उसकी जघन्य स्थिति बतलाने के लिए बीस कोडाकोडी मागर प्रमाण लिया गया है । यह स्पष्टीकरण टीका में किया गया है।