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पंचम कर्मग्रन्थ
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मतान्तर का उल्लेख करके इसका स्पष्टीकरण नहीं किया है । संभवतः तथाविध परंपरा का अभाव हो जाने से विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया जा सका है ।"
पहले तिर्यचायु और मनुष्यायु की जघन्य स्थिति क्षुद्रभव के बराबर बतलाई है, अतः अब दो गाथाओं में क्षुद्रभव का निरूपण करते हैं ।
इगमुहुर्त्तामि ||४०||
सत्तरससमहिया फिर इगानुपामि ति खडङभवा । सगतीस सयतिहत्तर पाणू पुण पणसट्ठिस हस्तपणसय छत्तीसा आबलियाणं ढोसय छपन्ना
इगमुत्तखु भवा । एगखुड्डभवे ॥ ४१ ॥
शब्दार्थ – सत्तरस – सत्रह समहिया कुछ अधिक, किर—
प्रवासोच्छ्वास में हृति--होते
निश्चय से इगाणुपाणु मि - एक हैं, खुभवा क्षुल्लक भव
सगलीससयतिहत्तर - संतीस सौ
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तिहत्तर, पाणु - प्राण, श्वासोच्छ्वास इगमुत्तमि एक मुहूर्त में ।
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पण सिहस्स पैंसठ हजार, पणसय- पांच सौ छत्तीस ---
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छत्तीस इगमुहुत्त एक मुहूर्त में द्रव मावलियाणं – आवलिका, दोसय-दो सौ, छप्पन छप्पन, एमखुडवे एक क्षुद्रभव में ।
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गाभार्य एक श्वासोच्छ्वास में निश्चित रूप से कुछ अधिक सत्रह क्षुद्रभव और एक मुहूर्त में संतीस सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास होते हैं । तथा
१. पंचसंग्रह में भी उक्त गाथाओं की टीका में मतान्तर का उल्लेख करके विशद विवेचन नहीं किया है। तीर्थकर नामकर्म का दस हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थितिबंध पहले नरक में दस हजार वर्ष की आयुबंध सहित जाने वाले जीव की अपेक्षा घटता है ।