Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम फार्मग्रन्य
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गुणा तथा असंशी पंचेन्द्रिय के लिये हजार का गुणा करना चाहिए । इसका जो गुणनफल प्राप्त हो वह उन-उन जीवों की उस-उस प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति होगी।
द्वीन्द्रिय से लेकर असंशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जो उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध बतलाया है, उसमें से पल्य' का संख्यातवां भाग कम कर देने पर उनका अपना-अपना जघन्य स्थितिबंध होता है। इस प्रकार एकेन्द्रिय से लेकर असंञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण समझना चाहिये।
१ कर्मग्रन्थ की तरह गो० कर्मकांड में भी एकेन्द्रिय आदि जीवों के स्थितिबंध का प्रमाण बतलाया है । उसकी कथन प्रणालो इस प्रकार है
एवं पगदि पाणं सपं सहस्सं च मिमवरवंधो। इगविगलाणं अवरं पल्लासंग्णसंखण ॥१४४॥
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिम चतुष्क (द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, पतुरिन्द्रिय, असंगी पचेन्द्रिय) जीवों के मिथ्यात्व का उत्कृष्ट स्थितिबंध क्रमशः एक सागर, पच्चीस सामर, पचास सागर, सो मागर और एक हजार सागर प्रमाण है तथा उसका जघन्य स्थितिबंध एकेन्द्रिय के पस्य के असंख्यात भागहीन एक सागर प्रमाण है तथा विकनेन्द्रिय जीवों के पल्य के संख्यातवें भाग हीन अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है।
आदि सप्तरिस्स एत्तिपमेतं कि होदि तीसियाबोगं । हरि संपाते सेसाणं इगिविगले उभयठिनी ॥१४॥
यदि सत्तर कोडाकोड़ी सागर की स्थिति वाला मिध्यात्म कर्म एकेन्द्रिय जीव एक सागर प्रमाण बांधता है तो सीस कोडाकोड़ी सागर आदि की स्थिति वाले बाकी कर्मों को एकेन्द्रिय जीव किसनी स्थिति प्रमाण बांध सकता है ? इस प्रकार राशिक विधि करने से केन्द्रिय जीव की उत्कृष्ट स्थिति व सागर प्रमाण होती है, इस प्रकार दोनों स्थितियां राशिफ के द्वारा निकल आती हैं।