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पंषम कर्मग्रन्थ
प्रकुतियों की दोनों स्थितियां सामान्य से अन्तःकोडाकोड़ी' मागरोपम हैं। लेकिन इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट स्थिति से जघन्य स्थिति का परिमाण संख्यात गुणहीन यानी संख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार उनका उत्कृष्ट और जघन्य अबाधाकाल भी अन्त हुत ही है और स्थिति की तरह उत्कृष्ट अबाधा से जघन्य अबाधाकाल भी संख्यात गुणहीन है। इस प्रकार इन तीन कर्मों की स्थिति (उत्कृष्ट व जघन्य) अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम और अबाधाकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण समझना चाहिए।
यहां जो तीर्थकर और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम बतलाई, वह स्थिति अनिकाचित तीर्थकर और आहारकद्विक की बतलाई है। निकाचित तीर्थकर नाम और आहारकद्विक की स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर के संख्यातवें भाग से लेकर तीर्थकर नामकर्म की स्थिति तो कुछ कम दो पूर्व कोटि अधिक तेतीस सागर है और आहारकद्विक की पल्य के असंख्यात भाग है।
तीर्थंकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम बताये जाने पर जिज्ञासु प्रश्न प्रस्तुत करता है कि जब तीर्थकर नामकर्म की जघन्य स्थिति भी अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम
१ कुछ कम कोडाकोड़ी को अन्तःकोड़ाकोड़ी कहते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि तीनो कर्मों की उत्कृष्ट और बघन्य स्थिति कोडाकोडी सागरो
पम से कुछ कम है। २. अंतो कोडाकोडी तित्थयराहार तीए सखाओ ।
तेतीस पलिय संखं निकाइयाणं सु उक्कोसा । -पंचसंग्रह ५।४२ 3. गो कर्मकांड गापा १५७ की भाषा टीका में अन्तःकोड़ाकोडी का प्रमाण इस प्रकार बताया है कि एक कोड़ाफोड़ी सागर की स्थिति की अबाधा सौ वर्ष बताई है। इस सौ वर्ष के स्यूल रूप से दस लाख अस्सी
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