Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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शतक
परभव की आयु का बंध करते हैं।'
१ गोल कर्मकांड में भी आयुबंध के संबंध में सामान्यतया यही विचार
प्रगट किये हैं किन्तु देव नारक और भागभूमिजों की छह माह प्रमाण अबाधा को लेकर उसमें मतमंद है कि छह मास म आयु का बंध नही होता किन्तु उसके विभाग में आयुबंध होता है और नत विभाग में भी यदि आयु न बंधे तो छह मास के नौवें भाग में आय बंध होता है । इसका सारा यह है कि जैसे कमभूमिज मनुष्य और नियंत्रों में अपनीअपनी पूरी आयु के विभाग में परभव को आयु का बंध होता है, ये में ही देव. नारक और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यचों के छह माह के त्रिभाग में आयुबंध होता है : दिगम्दार में नामाबर नहीं • त । भोगभूमिज्जों को लेकर मतभेद है । किन्हीं का मत है कि उनमें नो मास आयु शेष रहने पर उसके विभाग में परभव की आयु का बध होता है । इसके सिवाय एक मतभेद यह भी है कि यदि आठों विभागों में आयु बंध न हो तो अनुभूयमान आयु का एक अन्तर्मुहत काल बाकी रह जाने पर रभव की आमू नियम से बन जाती है । यह सर्वमान्य मन है किन्तु किन्ही-किन्ही बे. मन से अनुभयमान आयु का काला आवलिका के असंख्यात भाग प्रमाण वायी रहने पर परमव की आयु का ना नियम से होता है। गो. कर्मकांड में गा० १२८ से १३३ तक कर्मग्रन्थ के समान ही उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध चा कथन विधा है। लेकिन एक बात उल्लेखनीय है कि उसमें वर्णादि चतुष्क की स्थिति बीसकोडाकोड़ी सागरोपम' की बतलाई है और कर्मग्रंथ में उसके अवान्नर भेदों को लेकर दस कोडाकोड़ी सागरोपम से लेकर बीस कोड़ाको डी मामरोषम तक बताई है । इम अन्तर का कारण यह है कि कर्मग्रंथ में चसंग्रह के आधार से वर्ण, गंध, रस, रूपर्श के अवान्तर मेदों की उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया है । वैसे तो बंध की अपेक्षा से वर्णादि चार ही हैं । स्नोपज्ञ टीका में ग्रंथकार ने स्वयं इसका स्पष्टीकरण किया है।