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पंचम कर्मग्रन्य
१४७ की प्रकृत्तियों का समुद्राय नोकषाय मोहनीय वर्ग, नामकर्म को प्रकृतियों का समुदाय नामकर्म का वर्ग, गोत्रकर्म को प्रकृतियों का समृद्राय गोत्रकर्म बर्ग और अन्तरायकर्म की प्रकृनियों का समुदाय अन्तरायकर्म वर्ग कहलायेगा !
इस प्रकार के प्रत्येक वर्ग को जो उत्कृष्ट स्थिति है, उसे वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं और उस स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिान सनर कोड़ा ड़ी बारोमग रु भाग लेकर जो लब्ध आता है, उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम कर देने पर उस वर्ग के अंतर्गत आने वाली प्रकृतियों की जघन्य स्थिति ज्ञात हो जाती है ।
ऐसा करने का कारण यह है कि एक ही वर्ग की विभिन्न प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में बहुत अन्तर देखा जाता है । जैसे कि वेदनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है लेकिन उसके ही भेद सातावेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति उससे आधी अर्थात् पन्द्रह
कोडाकोड़ी सागरोपम की बताई। पंचसंग्रह के विवेचनानुसार साता - वेदनीय की जघन्य स्थिति मालूम करने के लिये उसकी उत्कृष्ट स्थिति
पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देना चाहिये और कर्मप्रकृति के अनुसार साता वेदनीय के वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देकर लब्ध में पल्य के असंख्यात भाग को कम करना चाहिये ।' १. बग्गुक्कोसठिईण मित्तकोसगंण मं लख ।
सेसाणं तु जहन्ना पल्लासखिज्जमागणा। -कर्मप्रकृति ७९ अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, उसमें पल्य के अमरूमाप्त भाग को कम कर देने पर शेष प्रातियों की जघन्य स्थिति ज्ञात होती है।