Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मतक
___ इस प्रकार से एक सौ तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध और उस स्थिति के अनुपात से उनका अवाधाकाल बतलाने के पश्चात अब आगे नामकर्म की आहारकद्विक, तीर्थकर इन तीन प्रकृतियों तथा आयु कर्म की उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबन्ध व अबाधाकाल का कथन करते हैं।
गुव कोषिकोडिअंसो तिस्थाहाराण मित्रमुह बाहा । लहठिइ संखगुणणा नरसिरियाणाउ पल्लतिगं ॥३३॥
शब्दार्थ-गुथ–उत्कृष्ट स्थिति, कोडिकोडिअंतो—अंतः कोड'कोड़ी सागरोपम, तिस्थाहाराण-नीर्थकर और आहारक. द्विक नामकर्म की, मिन्नमुह–अन्त में हूतं, पाहा-अबाधाकाल, लहुदिन-मन्यम्मित. संथगता-- -बिगमुग होग. -रतिरियाण-मनुष्य और तिर्यम, भाज- आभु, पल्सतिगं-तीन पल्योपम । ___ गापार्थ-तीर्थकर और आहारकद्विक नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम और अबाधाकाल अन्तमुहूर्त है । जघन्य स्थिति संख्यात गुणहीन अंतःकोडाकोड़ी सागरोपम होती है। मनुष्य और तिर्यंच आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम है।
विशेषार्थ-इस गाथा में तीर्थकर और आहारकद्विक आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति तथा अबाधाकाल बतलाने के साथ आयुकर्म के मनुष्य व तिर्यंच आयु इन दो भेदों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है।
तीर्थकर और आहारकद्धिक की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का कयन ग्रन्थलाघव की दृष्टि में एक साथ कर दिया है कि इन तीनों