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शतक
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जो उसका अबानाकाल कहलाता है । इस अबाधाकाल में कर्म विपाक के उन्मुख होता है और अबाधाकाल बीतने पर अपना फल देना प्रारम्भ कर उस समय तक फल देता रहता है जब तक उसकी स्थिति का बन्ध है । इसीलिये पन्थकार ने अवधाकाल का अनुपात वतलाया है कि जिस कर्म की जितने कोडाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है. उस कर्म की उतने ही सौ वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अबाधाकाल समझना चाहिये ।
इसका सारांश यह है कि एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की स्थिति में सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है । अर्थात् आज किसी जीव ने एक कोटाकोड़ी सागरोपम की स्थिति वाला कर्म बांधा है तो वह आज से सौ वर्ष बाद उदय में आयेगा और तब तक उदय में आता रहेगा जब तक एक कोड़ाफोड़ी सागरोपम काल समाप्त नहीं हो जाता है ।
अभी तक जिन कर्म प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है और शेष रही जिन प्रकृतियों की आगे स्थिति बतलाने वाले है, उसमें अकाल भी सम्मिलित है। इसलिये स्थिति के दो भेद हो जाते है— कर्मरूपतावस्थानलक्षणा और अनुभवयोग्या । बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल का परिमाण कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति है और अबाधाकाल रहित स्थिति का नाम अनुभवयोग्या स्थिति कहलाता है । यहाँ जो कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, वह कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति सहित है और अनुभवयोग्या स्थिति को जानने के लिये पहली कर्मरूपतावस्थानलक्षणा स्थिति में से अबाधाकाल कम कर देना चाहिये, ' जो इस प्रकार है
तत्र
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९ वह द्विधा स्थितिः - संरूपता व स्थान लक्षणा, अनुभवयोग्याचे कर्मरूपतावस्थानलक्षणामेव स्थितिमधिकृत्य जघन्योत्कृष्ट प्रमाणमिदम्राधाकाल होना ।
अगन्तव्यम् । अनुभवयोग्या
- कर्मप्रकृति मलयगिरि टोका, पृ० १६३