Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पंचम कर्मग्रन्थ
तिर्यचानुपूर्वी. औदारिक शरीर औदारिक अंगोपांग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण, उप धात, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, नम. बादर, पर्याप्त, प्रत्येक स्थावर एकेन्द्रिय जाति पंचेन्द्रिय जाति, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास, उद्योत आनप, पराघात, गुरु, कठोर रू शीत स्पर्श दुर्गन्ध ।
(३) गोत्रकर्म-नीच गोत्र |
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आहारक बंधन और आहारक संघातन को छोडकर शेष औदारिक बंधन और संघातन आदि की स्थिति भो अपने-अपने शरीर की स्थिति जितनी होती है। अतः उनकी भी स्थिति बीस कोडाफोडी सागरोपम की समझना चाहिए ।
इस प्रकार से बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से हाक द्विक, तीर्थंकर और आयु कर्म की चार प्रकृतियां, कुल सात प्रकृतियों को छोड़कर एक सौ तेरह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है । ग्रन्थलाघव की दृष्टि से गाया में एक सो तेरह प्रकृतियों के अबाकाल का भी संकेत किया है कि जिस कर्म की जितने कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है, उस प्रकृति का उतने सौ वर्ष का अबाधाकाल होता है। जैसे कि पाँच अंतराय, पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण और असाता बेदनीय इन बीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है तो उनका उत्कृष्ट अवाधाकाल भी तीस सौ अर्थात् तीन हजार वर्ष समझना चाहिए ।
बंधने के बाद जब तक कर्म उदय में नहीं आता है तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं । कर्मों की उपमा मादक द्रव्य से दी जाती है । मदिरा के समान आत्मा पर असर डालने वाले कर्म की जितनी अधिक स्थिति होती है, उतने ही अधिक समय तक वह कर्म बंधने के बाद बिना फल दिये ही आत्मा / साथ संबद्ध रहता है,