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शतक
तंजस पंचक्र की, अथिरछक्के--अस्थिरपट्क की, तसचज-सचतुक क्री, थावरहगणिवी-- स्थावर, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय की, नपु-नपुसक वेद की, फुखगह - अशुभ विहायोगति की, सासघाउ -उच्छवास चतुष्क को, गुरुकषखडक्खसीय-गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत स्पर्श की, दुर्गधे - दुरभिगंध की, बोसं-वीस, कोडाफोडी ...जोडाकोडी सागरोपम, एवइया -इतनी, अवाह-- अबाधा, वाससया-सो वर्ष । ___गाथार्य - भय, जुगुप्सा, अरति, शोक मोहनीय की, वैनियद्विक, तिर्यन्चद्विक, औदारिकद्विक, नरकद्विक और नीच गोत्र की तथा तजस पंचक, अस्थिरषद्क, बसचतुष्क, स्थावर, एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति की तथानपुंसक वेद, अशुभ बिहायोगति, उच्छ्वास चतुष्क, गुरु, कर्कश, रूक्ष और शीत स्पर्श की और दुरभिगध की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । जिस कर्म की जितनी-जितनी उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है, उस कर्म की उतने ही सौ वर्ष प्रमाण अबाधा जानना चाहिये।
विशेषार्थ--इन दो गाथाओं में बीम कोडाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली बयालीस कम प्रकृतियों की संख्या बतलाते हुए प्रकृतियों के अबाधाकाल का संकेत किया है । बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अधिकतर नामकर्म की उत्तर प्रकृतियां हैं।
मूल कर्म के नाम पूर्वक उन उत्तर प्रकृतियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं
((१) मोहनीयकर्म-भय, जुगुप्सा, अरति, शोक, नपुंसक वेद । (२) मामकर्म-वैनिय शरीर, वैकिय अंगोपांग, तिथंचगति,