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बतक
आकाश को क्षेत्र कहते हैं । जिन प्रकृतियों का उदय क्षेत्र में ही होता है, वे क्षेत्रविपाकिनी कही जाती हैं । यों तो सभी प्रकृतियों का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा को लेकर होता है। लेकिन जिसको मुख्यता होती है, वहां उसकी मुख्यता से उसका नामकरण किया जाता । आनुपूबियों को क्षेत्रविपाकी मानने का कारण है कि इन खेल में ही होता है। भो िजब जीव परभव •के लिये गमन करता है तब विग्रहगति के अन्तराल क्षेत्र में
आनुपूर्वो अपना विपाक---उदय दिखाती हैं 11 उसे उत्पत्तिस्थान के __ अभिमुख रखती हैं।
क्षेत्रविपाकी प्रकृतियों को बतलाने के वाद अब जीव और भत्रविपाको प्रकृतियों का कथन करते हैं । जीवविपाको और मविपाको प्रकृतिया
घणघाइ दुगोय जिणा तसियरसिंग सुभगदुभराउ सासं | जाइतिग जिविवागा आऊ चउरो भवविधागा ॥२०॥ ... .१ बेनाम्बर और विगाकर दोनों संप्रदायों में आनुपूर्वी को क्षेत्रविपाकी माना
है । लेकिन स्वरूप को लेकर मतभेद है। एवेताम्बर संप्रदाय में एक शरीर को छोड़कर मग सारीर धारण करने के लिये जब जीव जाता है तब आनुपूर्वी कर्म श्रेणि के अनुसार गमन करते हार उस जीव को उसके विश्रेणि में स्थित उतपतिम्धान तक ले जाता है। आनुपूर्वी का उदय जल पनि ने माना है --'पुच्ची उदओ नरके ।'
-प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा ४२ लेकिन दिगम्बर प्रदाय में आनपूर्वी कम एवं शरीर को छोड़ने के बाद और नया शरीर धारण करने के पहले अर्थात् विग्रहगति में जीव का आकार पूर्व नगर के समान बनाये रखता है और उसका पदय ऋजु घ या दोनों मनियों में होता है ।